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क्रा॒णा रु॒द्रेभि॒र्वसु॑भिः पु॒रोहि॑तो॒ होता॒ निष॑त्तो रयि॒षाळम॑र्त्यः। रथो॒ न वि॒क्ष्वृ॑ञ्जसा॒न आ॒युषु॒ व्या॑नु॒षग्वार्या॑ दे॒व ऋ॑ण्वति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

krāṇā rudrebhir vasubhiḥ purohito hotā niṣatto rayiṣāḻ amartyaḥ | ratho na vikṣv ṛñjasāna āyuṣu vy ānuṣag vāryā deva ṛṇvati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क्रा॒णा। रु॒द्रेभिः॑। वसु॑ऽभिः। पु॒रःऽहि॑तः। होता॑। निऽस॑त्तः। र॒यि॒षाट्। अम॑र्त्यः। रथः॑। न। वि॒क्षु। ऋ॒ञ्ज॒सा॒नः। आ॒युषु॑। वि। आ॒नु॒षक्। वार्या॑। दे॒वः। ऋ॒ण्व॒ति॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:58» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जो (रुद्रेभिः) प्राणों और (वसुभिः) वास देनेहारे पृथिवी आदि पदार्थों के साथ (निसत्तः) स्थित चलता फिरता (होता) देहादि का धारण करने हारा (पुरोहितः) प्रथम ग्रहण करने योग्य (रयिषाट्) धन का सहनकर्त्ता (अमर्त्यः) मरणधर्मरहित (क्राणा) कर्मों का कर्त्ता (ऋञ्जसानः) जो किये हुए कर्म को प्राप्त होता (विक्षु) प्रजाओं में (रथो न) रथ के समान शरीरसहित होके (आयुषु) बाल्यादि जीवनावस्थाओं में (आनुषक्) अनुकूलता से वर्त्तमान (वार्या) उत्तम पदार्थ और सुखों को (व्यृण्वति) विविध प्रकार सिद्ध करता है, वही (देवः) शुद्ध प्रकाशस्वरूप जीवात्मा है, ऐसा जानो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पृथिवी में प्राणों के साथ चेष्टा, मन के अनुकूल, रथ के समान शरीर के साथ क्रीड़ा, श्रेष्ठ वस्तु और सुख की इच्छा करते हैं, वे ही जीव हैं, ऐसा सब लोग जानें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो रुद्रेभिर्वसुभिः सह निषत्तो होता पुरोहितो रयिषाडमर्त्यः क्राणा ऋञ्जसानो विक्षु रथो नेवायुष्वानुषग्वार्य्या व्यृण्वति साध्नोति, स एव देवो जीवात्माऽस्तीति यूयं विजानीत ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (क्राणा) कर्त्ता। अत्र कृञ् धातोर्बाहुलकादौणादिक आनच् प्रत्ययः। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशश्च। (रुद्रेभिः) प्राणैः (वसुभिः) पृथिव्यादिभिः सहः (पुरोहितः) पूर्वं ग्रहीता (होता) अत्ता (निषत्तः) स्थितः (रयिषाट्) यो रयिं द्रव्यं सहते (अमर्त्यः) नाशरहितः (रथः) रमणीयस्वरूपः (न) इव (विक्षु) प्रजासु (ऋञ्जसानः) य ऋञ्जति प्रसाध्नोति सः। अत्र ऋञ्जिवृधिमदि० (उणा०२.८७) अनेन सानच् प्रत्ययः। (आयुषु) बाल्यावस्थासु (वि) विशिष्टार्थे (आनुषक्) अनुकूलतया (वार्या) वर्त्तुं योग्यानि वस्तूनि (देवः) देदीप्यमानः (ऋण्वति) कर्माणि साध्नोति ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये पृथिव्यां प्राणैश्चेष्टन्ते, मनोऽनुकूलेन रथेनेव शरीरेण सह रमन्ते, श्रेष्ठानि वस्तूनि सुखं चेच्छन्ति, त एव जीवा इति वेद्यम् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पृथ्वीवर प्राणाबरोबर गती (प्रयत्न), मनोनुकूल, रथाप्रमाणे शरीराबरोबर क्रीडा करतात व श्रेष्ठ वस्तू व सुखाची इच्छा धरतात, ते जीव आहेत, हे सर्व लोकांनी जाणावे. ॥ ३ ॥